रविवार, 14 दिसंबर 2008

जीवन धन अनमोल

जीवन धन अनमोल

गुलाबी नगरी के सौन्दर्य, यहाँ की स्थापत्यकला व बाजारों की रौनक का वर्णन सुनकर मन में कई बार जयपुर दर्शन की अभिलाषा बलवती होती गई। जयपुर लेकिन मुझे रास नहीं आया। यानी इस शहर से मेरी जन्मपत्री ने बिल्कुल मेल नहीं खाया। ऐसे-ऐसे दुर्दिन देखे कि इसका गुलाबी रंग आँखों को अंगारे सा चुभने लगा। जयपुर के 9 वर्ष का प्रवास कुम्भीपाक नरक-सा भोगा हुआ लगा।
ईश्वर ने इस नगर से मुझे मुक्ति दिला दी, मेरा स्थानान्तरण जोधपुर हो गया और मुझे सुकून भरा जीवन जीने को मिला। जीवन में सुषुप्त तमन्नाएँ फिर अंगडाई लेने लगीं। जीवन के सुनहरे 24 वर्ष इस शहर में पंख लगाकर कब उड गये, पता ही नहीं चला। फिर स्थानांतरण की ऐसी काली-पीली प्रचण्ड आँधी आई कि हमारा आशियाना लम्बी अवधि ठहराव के कारण जयपुर आ पडा।
24 वर्ष पूर्व के जयपुर और अब वर्तमान में जयपुर में दिन रात का अन्तर आ गया था। अब यह शहर पूर्णतया अपरिचित लगता था। सब कुछ बदल गया था। दो छोटे-छोटे कमरों के मकान में हम कसमसाकर जीने को मजबूर थे।
बेटे की जिद के कारण यहाँ रुकना जरूरी था। उसका शिक्षा के लिये यह सर्वोत्तम स्थान था, उसके कॅरियर के सामने सभी बातें गौण हो चुकी थीं।
नया अपरिचित शहर कोई जानकार नहीं। आस पडोस में भी सब शान्त प्रवृत्ति के व घर में रहने वालों का बाहुल्य। शाम के समय बहुत अखरता, जायें तो जायें कहाँ।
साँझ ढले मैं कुर्सी गेट के पास डालकर बैठ जाती, पेपर पढ लेती, चाय पी लेती व रेडियो के गाने सुनते-सुनते सब्जी काट लेती। सामने पार्क में बच्चे खेलते तो उनके झगडे व खेल में मग्न बच्चों को देखना मेरी दिनचर्या का एक अंग बन गया था।
मैं दो-तीन दिन से देख रही थी। एक वृद्ध दम्पती पार्क में घूमते-घूमते बतियाते हुए पार्क की दीवार के पास आकर मेरे घर की तरफ देखते रहते हैं और आपस में बतियाते रहते हैं। न कभी उन्होंने मुझसे बात की और न ही मैंने उनसे।
एक दिन उनकी पत्नी ने मुझे आवाज लगा कर पूछा। क्या हम आपका घर देख सकते हैं? मैंने कहा-��हाँ, हाँ क्यों नहीं। इस घर में है ही क्या देखने लायक? बस थोडा-सा सामान।�� उन्होंने कहा, ��नहीं आपकी सीढयाँ देखनी हैं।�� मैंने आदर से उन्हें अन्दर बुलाया।
फिर तो बातों का जो दौर चला कि समय का ज्ञान ही नहीं रहा। वे भी इस शहर में हैदराबाद से नये-नये आये हैं। पीछे वाली गली में घर खरीदा है, अब यहीं रहेंगे। आयकर विभाग में कार्यरत थे। अब सेवानिवृत्ति हो चुकी है। दो बच्चे हैं, दोनों की शादी कर दी। बेटी चण्डीगढ में डॉक्टर है। बेटा आई.सी.आई.सी.आई. बैंक में कार्पोरेट मैनेजर है। मैंने कहा, ��आफ तो बडे ठाट हैं। दोनों बच्चे उच्च अधिकारी बन गये, विवाह हो गया, यानी जिम्मेदारियों से मुक्त। अब ऐश से जिओ कोई चिन्ता नहीं।��
शायद मेरे इन वाक्यों ने मिसेज गुप्ता के अन्तर्मन को ठेस पहुँचाई। वे एकदम बौखला उठीं, उन्होंने कहा, ��मिसेज शर्मा जब तक बेटा कुँआरा है तब तक जी भर कर जी लो। बहू आने के बाद तो समझो बेटा हाथ से गया।��
मैंने आपको समझाने के दृष्टिकोण से कहा, ��मिसेज गुप्ता-यह तो जीवन की रीत है। हमेशा से ऐसा होता आया है।��
फिर जो उनका नासूर फूटा तो उन्हें संभालना मुश्किल हो गया। उन्होंने कहा-�मेरा बेटा इतना गौरा, चिट्टा, होनहार कि राजकुमार भी शर्मा जाये, मैंने उसे दूध, ज्यूस, मक्खन, फ्रूट खिलाकर पाला था। गालों से जैसे लाली चू पडे। छः फुट की हाईट, गठा हुआ बदन, घुँघराले बाल, काली बिलौरी चमकती आँखें, अनुपम सौन्दर्य, कुशाग्र बुद्धि बेटे का नाम मैंने बडी तमन्ना से रखा था-�प्रखर�।
न जाने कितनी मिन्नतें माँगी तब ईश्वर ने उसे मुझे दिया। पढाई-लिखाई में प्रखर का जवाब नहीं था। आई.आई.टी. में प्रथम बार में ही पास होकर कानपुर से पढाई कर आठ लाख के पैकेज पर नौकरी प्राप्त कर कार्पोरेट मैनेजर बन गया। मेरा बेटा पर्स भर-भरकर नोट लाता, बडे-बडे होटलों में खाना खिलाने ले जाता। कार खरीद कर ड्राईवर रखवा दिया। कमरे में ए.सी. लगवा दिया, सुन्दर-सा घर बैंक से लोन लेकर बनवा दिया।
जीवन के अरमान बेटे ने पूरे कर दिये थे। अब मैं पीछे पडी की एक चाँद-सी सुन्दर बहू ले आ, जो सेवा करे। बैंक में ही कार्यरत एक एसिस्टेंट मैनेजर लडकी का प्रस्ताव आया और बाप, बेटे, बहन सबने सहमति दे डाली। मुझे भी हामी भरनी पडी। सबकी खुशी में मेरी भी खुशी थी। खूब धूम धाम से शादी सम्पन्न हुई।
शादी के तीसरे महीने की पहली तारीख को बेटे के कमरे से बहू के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। तुम हर बार तनख्वाह माँ के हाथ में देते हो? मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, अब मेरा हक है।
बहू के ये वाक्य सुन मेरा मन धक से रह गया। एक दो दिन निकल गये बेटा बिल्कुल चुपचाप रहता। बस, खाना खाते खिलाते कुछ देर इधर-उधर की बातें कर सोने चला जाता।
एक तारीख के बाद दूध वाला, पेपर वाला, सब्जी वाला केबल वाला, धोबी, नाई सब की आँखें पगार के लिये लालायित हो उठती हैं। मैंने अपने बचाये हुए रुपयों में से सबका चुकता किया। एक दिन मौका देखकर मैंने बेटे से धीरे से कहा-��बेटा तनख्वाह नहीं मिली क्या? कार की किश्त भरनी है।�� उसने गुमसुम सा जवाब दिया, ��माँ, तुम्हारी बहू ने ले ली हैं।�� वह कहती है-��अब, मैं घर चलाऊँगी।��
धीरे धीरे कटौतियों का दौर चला व सब खर्चों पर कतरनी चलती गई। सीमित पैसे घरखर्च के लिये निकाले जाते बाकी बैंक में जमा रहते।
तीन साल आते-आते हमारा जीवन नौकरों से भी बदतर हो गया। सुबह की चाय, नाश्ता, लंच, कपडे धोना, डस्टिंग करना व शाम का खाना बनाने में हमारा पूरा दिन निकल जाता। बेटे का व्यवहार भी धीरे-धीरे परिवर्तित होने लगा। पत्नी की सभी बातें सही व हमारी गलत। एक दिन हमने निर्णय लिया कि इस साम्राज्य में हमारे लिये कोई जगह नहीं है। उपेक्षित नौकरों-सा जीवन हम क्यों जीयें?
हमने अपनी पेंशन के कागज पत्र् समेटे, सेवानिवृत्ति में मिली पूँजी से यह छोटा-सा घर खरीद लिया। सब कुछ वहीं छोडकर अब बुढापे में नये सिरे से घर बसा रहे हैं। उनका गला रुँध गया। वर्षों से सुषुप्त ज्वालामुखी-हम उम्र अपरिचित के सामने फूट पडा। गुप्ता जी भी गुमसुम बैठे थे। मेरा बेटा पानी का गिलास लाया। मैंने रसोई में जाकर चाय बनाई, उनको कुछ शब्द तसल्ली के कहे।
यह प्रथम परिचय आत्मीयता की गहराई में ऐसा पैठ गया कि लगा हम वर्षों से एक दूसरे को जानते हैं।
कुछ दिनों के बाद दशहरे का छोटा-सा मेला कॉलोनी के नुक्कड पर लगा हुआ था। रावण का पुतला, चाट, पकौडी की दुकानें, आईसक्रीम के ठेले, हौजी, इनामी योजना आदि का शोर। मेरे पति ने कहा-��हर समय घर बैठी रहती हो चलो मेले में चलते हैं। कुछ जी तो बहले। मैंने स्लीपर पहने, चुन्नी उठाई और चल दी। यहाँ हमें कौन पहचानता है? कौन साडी पहने। भीड-भाड में घूम कर इलेक्ट्रोनिक्स की दुकान पर नई चीजें देख रहे थे। अचानक कंधे पर एक हाथ आया-मैंने पीछे मुड कर देखा-��अरे मिसेज गुप्ता, कैसी हैं आप? मेला देखने आये हो, अच्छा लगा।�� फिर तो बच्चों की सी ललक में उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया। ��चलो दाल के बडे खाते हैं।��, ��बाहर की तली हुई चीजें मैं नहीं खा सकती��-मैंने कहा। उन्होंने बडे अधिकार से मुझे खींचते हुए कहा-��तुम से ज्यादा बूढी तो मैं हूँ ना। छोडो ये परहेज, जितने दिन जीना है, ठाट से जियें। मरना तो एक दिन है ही सभी को।
मैं उनके आग्रह को टाल न सकी। उन्होंने दो दोनों में दाल की पकोडयाँ लीं, एक हसबैण्ड की तरफ बढा दिया दूसरे दोने से पकोडी उठा कर चटनी में लपेटा और मेरे मुँह में ठूँस दिया। एक बार रसना को चटकारा लगा कि दोनों ने दोना साफ कर दिया। फिर वे आईसक्रीम की स्टाल की तरफ बढी। अब मैंने उनका हाथ पकड लिया। मैंने चार आईसक्रीम के कोन लिये, दो शर्मा जी व गुप्ता जी की तरफ बढा दिये, एक एक हम दोनों ने ले लिया। मैंने डरते-डरते कहा-��सुनो, मौसम बदल रहा है, हमें ये सब नहीं खाना चाहिये।�� उन्होंने मुझे घुडकते हुये कहा-��कुछ नहीं होता, खाओ��।
कुछ देर इधर-उधर घूमते-घूमते जब हम थक गए तो घर की तरफ चल पडे। बातों का सिलसिला जारी था। पहले उनका घर था। वे मेरा हाथ पकडकर बोली, ��चलो न मिसेज शर्मा कुछ देर बैठते हैं। कल तो तुम्हारी छुट्टी है।��
हम रात साढे ग्यारह बजे तक बतियाते रहे। बच्चों के बारे में, घर परिवार के बारे में। आज बहुत दिनों बाद गप्पे मारने का सौभाग्य मिला था, इसलिये मन बडा प्रफुल्लित था।
अब वे शाम को घूमने निकलती तो अक्सर हाय, हैलो होती रहती। कभी वे आ जाती कभी मैं उनके पास बैठ जाती।
वे दो-तीन बार घर आई, लेकिन संयोग से मैं उनसे नहीं मिल पाई। हर बार मम्मी घर में नहीं है, बेटा उन्हें समाचार देता। कार्य की अधिकता के कारण मैं भी मिलने नहीं जा सकी।
एक दिन शाम को मैं रसोई में खाना बना रही थी-काल बेल बजी। मैंने दरवाजा खोला-एक अपरिचित महिला ने कहा-��मैडम, वे जो पीछे गली में आपकी सहेली मिसेज गुप्ता रहती हैं, उनका निधन हो गया है। बस उनकी अर्थी उठने ही वाली है। आप जल्दी आ जाओ।��
मैंने ऊपर छत से शर्मा जी को बुलाया, गैस बंद की और तुरन्त वहाँ पहुँची। अर्थी पर मिसेज गुप्ता थी, बेटी, माँ से लिपट कर रो रही थी। मैंने धीरे से उसे माँ से अलग किया। इसी समय एक होण्डा सिटी कार दरवाजे पर रुकी, उसमें से सलवार कमीज पहने एक बुजुर्ग महिला उतरी, फिर जीन्स व टॉप में एक लडकी उतरी। गुप्ता जी गुमसुम से खडे थे। आस-पास बैठी दो-तीन पडोसिनों में खुसर फुसर होने लगी कि ��यह उनकी बहू है।��
बेटा बहुत दूर था, हवाई टिकट का प्रबन्ध नहीं हुआ था। उसके इन्तजार में माँ की मृत देह तिल तिल कर सड न जाये इसलिये शीघ्र दाह संस्कार करना जरूरी था। मुखाग्नि देने बेटा नहीं पहुँच पायेगा। बहू के आते ही अर्थी उठा ली गई।
अर्थी के जाते ही बेटी दहाडकर माँ, ओ माँ, करके रोने लगी। उसके विलाप से सभी की आँखें नम हो उठीं, माँ जैसी अमूल्य निधि-माँ की छत्र्छाया से वंचित वह बहुत देर तक सुबकती रही। सबने उसे संभाला। भाभी-उसे गले लगाने आगे बढी तो उसने सुबकते हुये कहा-��चलो, अच्छा ही हुआ भाभी तुम्हारी पचास प्रतिशत जिम्मेदारी तो खत्म हुई।��
हम सब कमरे में आ गये। चार प्लास्टिक की कुर्सियाँ, एक फ्रीज, एक दीवान, एक डबल बैड, व रंगीन टी.वी. सब कुछ बिल्कुल नया। मैं घर आई, एक जग चाय, दो पैकिट ब्रेड, दो पैकिट बिस्किट के लेकर गई। सभी लोग दाह संस्कार से लौट आये थे।
दूसरे दिन रविवार था, मैं सुबह उठ कर चाय बनाकर ले गई। वापस लौटते समय बाई मिल गई। कहने लगी आपसे बहुत प्रेम करती थी गुप्ता बहन जी। मैंने कहा-��हाँ��, फिर कहने लगी-��उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था।�� मैंने आश्चर्य से पूछा क्या?
अब वह चौंकी। बोली, ��आपको नहीं पता?�� मैंने पूछा, ��क्या?�� अरे यही कि आपकी सहेली ने विषाक्त पदार्थ खाकर जान दे दी है। वे तो बेचारी कल सुबह ही मर गई थी।
मेरा जी धक से रह गया। बडी मुश्किल से घर आई। सोफे पर धप से गिर कर देर तक रोती रही। मिसेज गुप्ता का चेहरा बार-बार आँखों के सामने घूमता रहा। मिसेज गुप्ता तुम इतनी कमजोर क्यों पड गई? क्यों बेटे-बहू के व्यवहार ने तुमको इतना तनावग्रस्त कर दिया कि तुम्हें इतना कठोर कदम उठाना पडा। आखिर क्यों...? क्यों...? न जाने ये प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कितने दिनों तक हथौडे की तरह प्रहार करता रहा।
बेचारे गुप्ता जी के लिये तो सोचा होता? वे तुम्हारे बिना कैसे जियेंगे? तुम्हारा लाडला बेटा, वह क्या इस दुःख को जीवन भर ढो पायेगा? अपराधबोध उसे कैसे जीने देगा? काश! तुमने सोचा होता।
जीवन के क्षणिक आवेश ने तुम्हारे बसे बसाये घरौन्दे को तार-तार कर दिया।
मेरे स्मृति पटल पर ये पंक्तियों बार-बार आहट कर रही थीं -
खुद को मिटा दे, क्या हक तेरा?
तू सारे जग का धन है,
जुडा हुआ तेरे जीवन से,
औरों का भी जीवन है।
शाम को पार्क की बैंच पर अकेले छडी लिये बैठे गुप्ता जी को देखकर मन दर्द के समन्दर में डूब जाता है। अब मैंने, बाहर बैठना छोड दिया है।

Veena Chauhan

email : chouhanveena@gmail.com
mobile no : +91-9413966566

1 टिप्पणी:

careless infancy ने कहा…

A very touchin story depictin the bitter reality of the modern families... the portrayal is simply awe inspiring!!!